उम्हाया
‘‘उम्हाया‘‘ का तात्पर्य मिलन से है। सतनामी साध धर्म के दोनों गुरु जब समारोह पूर्वक अपनी-अपनी संगतों के साथ मिलते हैं। उसे ‘‘गुरु मिलाप‘ से सम्बोधित किया जाता है। दोनों और सगते अपने- अपने भाव से गुरु की महिमा के गुण गाकर दोनों गुरुओं के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। दोनों ओर से संगते आपस में उमाहे गाते हुए गुरुओं के पीछे-पीछे मिलन के लिये कदम-कदम आगे बढ़ते रहते हैं. कहते हैं कि साधों के इस गुरु मिलाप को स्वर्ग के देवता भी बड़ी प्रसन्नता पूर्वक देखते हैं।
(1)
जा दिन सादन साद मिलाय, सोई दिन लेखे-टेक।
अरसठ तीरथ चरन साद के लंगर लारि लगाय।
अरसठ नौ निधि घाट साद के वे मन साद मिलाय।
जो मेरे साद की निंदा करत है, वे नर दोजख जाय।
कह रहे दास दासन के दासा, ऊँचे परम पद पाय।
(2)
ऊँचे चढ़ाऊँ गढ़ कोठरिया, मैं जोहूँ साहिब री बाट।
कोई तो बतावै गुरु आवता, मैं धमकि विछाऊँ पाट।
बाई हो गुरु देवरी कोई जिनने लियौ उपदेश।
धनी म्हारौ नाम सुनावेना, साहिबरौ नाम सुनावेना।
कोई सतगुरु साहिब पावेणा-टेक।
कोड़े बुबाऊँ गुरु ऐडची, म्हारे आंगन में नागर बेल।
जहाँ मोरा भाइरा बैठेगा, वहाँ आवै सुगन्धि लहर।
कोई सतगुरू साहिब……..
अहल महल दो नीवडियां, जिनकी है शीतल छांव।
जहाँ मोरा भाइरा बैठेंगा, वहाँ लेगा साहिबरौ नाम।
कोई सतगुरू साहिब……..
अमर घमर दो झोटरिया, भाई दूध रधाऊँ खीर।
नौत जिमाऊँ मोरा भाइरा, वे चारौ जुगारौ वीर।
कोई सतगुरू साहिब……..
गंगा तो जमुना सरस्वती भई जिनको है निर्मल नीर।
पढ़े लिलारी बाई देवरी, म्हारो साहिबरौ सचियार।
कोई सतगुरू साहिब……..
(3)
आजै सखीरी में तीरथ न्हाई.
कोई साधूरा हमारे घर आया हो जी।
हरियल गोबर अंगन लिपाया
कोई चांद नियारी चैक पुराया हो जी
कन्याकुमारी परमगुरु पाठ पढ़ायी
कोई कायर जीरी थरहर थरहर काँपे जी।
मौड़ी रौ तागौ परम गुरु कांकड़ आकड़ बाँधू
कोई साधू का भयौ सहदानी हो जी।
लैके तराजू परम गुरु तोलन लागे,
कोई साधूणा की तोले सवाई हो जी।
हिवड़ौ म्हारौ लरजै जियरौ म्हारौ कापै,
कोई ऊँचे चढूँ तो सतगुरु लागे हो जी।
ये मोरा भाइरा जुगान पति जोगी
कोई दूजे भाइरा आसन घारी हो जी।
कानारे मुदरा पवन झकारें
कोई माइलारौ मुदरा सांची हो जी।
गंगा तो जमुना नीर बहायौ,
कोई मुतियन कलश भरायौ हो जी।
ऊँगम जी की चेली रुपादेबाई बोली
कोई फलसी भाइरा हेतनधारी हो जी।
आज सखीरी..
(4)
साध इसी विधि जानिये जाकै भ्रांति न कांई।
माया रौ बन्धन तजै, निज नाम सुनाई।।
कहें जी किशन अर्जुन सामरौ,
अरे अर्जुन सामरौ, पांडू सामरौ। टेक
एक बूंद पावक तुले, सत साहिब तोलै।
पीवन हारौ बन्दा पी गयौ, जग रह गयौ औले।।1।।
तेल कढ़ाई औटिये, चन्द्रमाहू दीखै।
दीखै पर दादै नहीं, साहिब नै सुमरै ।।2।।
नदिया किनारे रुखड़ा, जैसे साध में धूल।
पहले तो जासी पातड़ा, पाछे जायसी मूल।।3।।
खूंदन तो धरती सहै, काट सहै बनराय।
खोटे वचन साधू सहै, और पै सहेऊ न जाय।।4।।
हिन्दू तौ धावै द्वारिका, मक्के मुसलमान।
मन मंदिर दिल द्वारिका, राखौ गुरु से ईमान।।5।।
एक दियाँ काशी जरै दूजौ काया रे मांहि।
तीजी दियौ चंचल पाट ने, बोले कायम राव।।6।।
(5)
जोई जोई संगत कीजिये मन मिलता से मिलिये।
संसय घणा डरना नहीं, वासे न्यारों की रहिये।।
वासे अलग ही रहिये।। टेक
कच कच सूत जो तागला, तागो तोड़े ही टूटै।
ओछा जल का नाड़िया, महिना पहले ही सूखे।।1।।
काड़ी ऊन कुवाड़ चा रंग दूजौ ना लागे।
सो मन मजत गुडाइये, रंग त्यौऊ न लागे।।2।।
आला से जैसल ऊजड़ा, नर देखत रुरा।
औरन मारग दाखला, अपनी करणी में खूड़ा।।3।।
काँटो केलारौ संग नहीं, काँटो केला ने खावै।
मूरख कूँ समझावता पत गाँठ यारी जावै।।4।।
बोदी बाढ़ फिरासरी, बिन छेडाँई छीजै।
वाणी ऊँगमसी बोलिये, कछु सुकरत कीजै।।5।।
(6)
साधन सुरति मिलूँगी साहिबा मन मिलबादे प्यासी।
कच में जैसेल मोहा सोमालौ अधिक भूमि परगासी।।
सैया साँवरिया, रावल में रुपादे मालौ रन में है दासी। टेक
कहै रुपादे सुनौ माल जी कच मिलावादे जासी।
कच में जैसल तोला परघटे उनके दर्शन करसी।।
सैंया साँवरिया..
पाट पटम्बर ओढ़न लागी और दखिनियाँ साड़ी।
और पटरानी मिलिबे कूं चाली सात पाँच नौ दासी।।
वाई कुआँरौ खारौ पानी जल तो लादे लासी।
रावन में रुपादे पीयौ जैसल पियौ पियासी।।
सैया साँवरिया…
सूखी केर पथर पै रोपी हरी भई जब जासी।
तू मैं चाकर एक घनीरो नी करनी निरवासी।।
सूकी डाल फूट आई कौंपल कलियन कलियन जासी।
गहर घमेरी भई पीपरी मिट गई अन्त उदासी।।
सैंया साँवरिया…
ऊँचा पहाड़ अथरबल ऊंचा थरहर थरहर खासी।
आदि जुगादि बैठ नौ आलम अखंड ज्योति परगासी।।
सैंया साँवरिया…..
बेसुगहारी सुगढ़ सहेली अनंत बधवा गासी।
हरजी पड़ै गुरु की सरना, भ्राँति गई मन मासी।।
सैंया साँवरिया…