Purnima utsav

पूर्णिमा उत्सव

सतनामी साध-धर्म मन्दिर, रुकनपुर में जैसा कि हमारे सतगुरु साहिब हर युग में प्रकट होकर साधौ को उपदेश देते आये हैं, कि पूर्ण मासी का काम बड़े महत्व का है, उसी महत्ता के साथ पूर्णमासी मनाते हैं। सतगुरु साहिब का हुक्म है कि गुरुद्वारों में पूर्णिमा को सभी साथ एक साथ इकट्ठे होकर साथ-साथ रहने के भाव के समारोह पूर्वक मनायें, उपवास करें, अवगत-नाम का जाप करें, अहम् व अहंकार से दूर रहने का व्रत धारण करें, सभी आत्माओं के प्रति अवगत भाव रखें, सभी साथ पूर्णमासी को साध-संगत मेले में पहुँचे, सतवादियों में पारस्परिक रूप से निर्मल भाव बनाये रखें, शब्द-वाणी सतवादियों की कथा का लय व नाद योग के साथ गायन करे एवं सतगुरु साहिब के उपदेशों के परिपालन करने का सत्य संकल्प लें।‘

कहें जी सबलदास इतनी सी साधैँ, तो अमरापुर कूँ जावेगौ ‘

सतनामी साधो की पूर्णिमा-‘व्रत पूर्णिमा‘ होती है। वह कभी-कभी स्नान पूर्णिमा से एक दिन पहले मनायी जाती है। क्योंकि पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा में प्रतिपदा के चन्द्रमा का योग आने के कारण ‘स्नान पूर्णिमा‘ को अपराह्न काल में ‘पूर्णिमा-काल‘ नहीं रहता है। अतः साधों की पूर्णमासी का काम चढ़ती -कला में आठ प्रहर के अन्दर पूर्ण करना होता है। पूर्णिमा के छोर व प्रतिपदा चन्द्रमा के आगमन योग से आठ प्रहर पूर्व की अवधि को नक्षत्र-विज्ञान में चढ़ती-कला कहते हैं। इस चढ़ती-कला को ही पूर्णमासी का सुयोग माना जाता है।


‘भगति पदारथ चारयो खूँटी, कोई जुगति का जोर लगावेगो ।‘

जुगति‘ का शब्दकोषीय अर्थ-विधि, उपाय, यथार्थ, सत्य आदि दिये हैं, इसका अभिप्राय यह है कि सत्यानुसन्धान की विधियों और उपायो को ‘जुगति‘ कहा जाय। यह जो निश्चय है कि पूर्णमासी के दिन स्वयं अवगत मेहरवान साक्षात् सतगुरु द्वारे में विराजमान होते हैं, सच्चे साधों को यह सत्यानुभूति होती है। उनके विराजमान का भाव मन में समझ कर, साथ उनके चरणों में चित्त रखते हैं। यह जुगति की निज-अंतरंग विधि है।

वाणी के पश्चात् सभी उपस्थित दीक्षित साध एकाग्र-ध्यान से सतगुरु-मन्त्र का जाप करते है और अदीक्षित साध सत साहिब जाप करते हैं। अनन्तर इसके सभी श्रद्धा व विनम्र भाव से दण्डवत धोक लगाते है और दीक्षित साधों को महाप्रसाद तथा शेष को प्रसाद वितरण किया जाता है। इन क्षणों में सम्पूर्ण साध-संगत इस धार्मिक क्रिया के माध्यम से

आध्यात्म में डूब जाती है, अनन्त-सत्ता की अनुभूति में आनन्द विभोर रहती है। निरहंकारी साधों को सतगुरु साहिब की दर्शना भी होती है। साध-संगत के रोम-रोम में ‘सत‘ की प्रतिष्ठा हो जाय, सतनामी साध मन्दिर रुकनपुर की पूर्णमासी का अभीष्ट लक्ष्य रहता है। ‘सत‘ वही जो अजर, अमर, अमिट, अगम, अगाध हैं, वह केवल अवगत मेहरबान हैं। उनके उपदेश ही ‘सत-शब्द‘ हैं और सात्विक वृत्ति के पोषक हैं। अध्यात्म में तरंगित एवं उमंगित स्थिति में ही साध-संगत ‘सत‘ के बोध से जुड़ सकती है। एक ओर भक्ति, ज्ञान व ध्यान से अवगत मेहरबान के साथ अभेद सम्बन्ध स्थापित करने के कार्यक्रम तथा दूसरे, सुमधुर लय तथा उसके साथ नादयानी वादî-वादन की मोहक ध्वनि से अवगत महिमा में तन्मय व तल्लीन बनाने के कार्यक्रम साध-संगत को उमंगित कर ‘सत‘ से जुड़ने के लिए उत्सुक व जिज्ञासु बना देते हैं क्रमशः भक्ति- अपने शुद्धात्मा स्वरुप का अनुसन्धान करना भक्ति है। कुण्डलिनी शक्ति योग के बृहद् चित्र से साधना करने का वैज्ञानिक रीति से प्रशिक्षण देकर एवं चक्र-भेदन की मूलाधार चक्र से शून्य चक्र तक योग क्रियाओं की सैद्धान्तिक व प्रयोगात्मक दक्षता प्रदान कर निरन्तर नित्य अभ्यास करने से शुद्धात्मा स्वरुप की अनुभूति होती है।
ज्ञान- अविद्या, अहंकार, इन्द्रिय भोगों, तृष्णा, विकार इत्यादि के क्षय करने के लिए संयम निरोध व अन्य साधनांे का व्यवहारिक परिज्ञान देने से एवं सदाचार परिपालन का परिवेश तैय्यार करने से आत्मानुभूति के मार्ग में आई बाधाओं को हटाया जाता है। ध्यान अवगत मेहरबान के सम्बन्ध में सतत चिन्तन (बीच में अन्य किसी का चिन्तन न करना) करने को ध्यान कहते हैं। वैसे यह पतंजलि योग मार्ग का सातवाँ अंग है। ‘सत-अवगत‘ जप, पर ब्रह्म सुमिरन, सतगुरु मन्त्र को धारण कर मन पर टिका कर सतगुरु साहिब की ओर लगाना एवं ध्यान अवस्थित करने के अभ्यास प्रभाती व आरती व ध्यान-योग के समय में कराया जाता है। अवगत मेहरबान के साथ यहाँ साधों का शनैः शनैः अभेद बन रहा है। यहाँ निर्गुण भक्ति का उभरता हुआ प्रांजल स्वरुप है।

सतनामी साध- दर्शन में नाद, ध्वनि व लय का स्थान अत्यन्त विलक्षण है। वाणी विचार-शक्ति का वाहक है। शब्द के बिना विचार का कोई भी अस्तित्व नहीं रहता। अपने विचार प्रकट करने के लिये जीव शब्द का दो भिन्न प्रकार से प्रयोग करता है- (1) वर्णरुप शब्द तथा (2) गीत रुप शब्द व्याकरणाचार्यों ने वाणी के चार रुप बताये है- परावाक्, पश्यन्ति वाक्, मध्यमा वाक् एवं वैरवरी वाक्। वैरवरीवाक् सामान्य बोल-चाल व वर्णरुप शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति के लिए अधिकतर प्रयुक्त रहता है। जबकि संगीत के स्वरों का आधार मध्यमा वाक् है, वैरवरी वाक् नहीं। मध्यमावाक् नादरुप होने से श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य है, क्योंकि संगीत के स्वरूप में अलग अलग अक्षर नहीं होते। संगीत के एक-एक स्वर में अनेक अर्थ होते हैं।
मूल बाते यह हैं कि गान-क्रिया मध्यमावाक् द्वारा उत्पन्न होती है। यह सतनामी साध समाज ज्ञान पुस्तिका गान क्रिया में श्रेष्ठता है, पूर्णता है। संगीत का अवा मोक्ष का सरल साधन माना जाता है। याज्ञवल्क्य ऋषि ने यहाँ तक कहा है कि वीणा वादन का तत्वज्ञ, स्वर व उससे उत्पन्न रस का अभिज्ञाता तथा बालों का ज्ञाता बिना परिश्रम के मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

एक और दार्शनिक गहराई है। स्वरों की संख्या १२ होती है – प्रधान पाँच, गौण-दो, मिश्रित-दो, तथा विकृतरूप के स्वर-तीन। संगीत के नादों (श्रुति) की संख्या छियासठ, जिनमें से बाईस प्रधान होते हैं। मानव स्वभाव के रस एवं भाव के पोषण का आधार संगीत नाद, ध्वनि, लय ही हैं। गान्धर्व-विद्या से, जैसा मतंग ऋषि ने कहा है, ३२ विद्याओं का रहस्य खुल जाता है। सृष्टि की रचना का रहस्य समझने के लिये नाद-विद्या एक अद्भुत साधन बनती है। यह युक्ति संगत एवं गम्भीर तत्त्वपूर्ण अनिवार्य सत्य है।
इन दार्शनिक आधारों को लेकर सतनामी साध-धर्म में शब्द, वाणी, में सत-कथायें, ऐलम, आगम, उमाहे इत्यादि गायन-वादन कला के साथ गाये जाते हैं। जीव अपने स्वभाव से रस व भाव में सराबोर व अवगत महिमा में व्याप्त हो जाता है। ओगर ग्राम के सैकड़ों साध-साधिनी साक्षी रहे कि दिसम्बर २००६ में आयोजित धर्म-सम्मेलन में फण-धारी काला-सर्प सतगुरु बाबा साहिब के गद्दी वाले तख्त के अति निकट रुक कर ३.५ घन्टे तक साध-चर्चा के गायन-वादन के रस में भाव विभोर रहा, जैसे ही समापन पर वाणी पूरी हुई,

गद्दी के नीचे और सतगुरु बाबा साहिब के चरण पादुका श्री पर होकर गया और एक निमिषमेंयानी पलक झपने की देर हुई नहीं कि वह सर्प अदृश्य हो गया। यह कोई अद्भुत नहीं है, बल्कि गायन वादन की कला का जीव पर प्रभाव था। ऐसा ही दूसरा वृतान्त रामपुर मानपुर में हुआ।

धर्म-सम्मेलन में जैसे ही मोरध्वज लीला का गायन-प्रारम्भ हुआ, वहाँ आकर निडर होकर एक मयूर आकर नृत्य करने लगा और लीला-गायन पर्यन्त नाचता रहा। समूची साध-संगत अचम्भित होकर देखती रही। सतगुरु बाबा साहब से प्रसाद का चुगा लेकर उड़ा और वृक्ष की एक डाली पर जा बैठा।
विचार करिये कि मानव तो प्रबुद्ध है, भावना, व संवेगों से भरा हुआ है, जब सर्प व मयूर जैसे जीव भी गायन-वादन कला से रस व भाव विभोर हो जाते हैं जो वह अपने को कैसे बचा सकते हैं, वह श्रद्धाभाव से मन्दिर में पधारे साधों की मनोदशा एवं अवगत मेहरबान के सागर में गुणानुवाद के भव में डूब जाता है और अनन्दानुगत समाधिस्थ हो जाता है। इसीलिए पूर्णमासी को प्रातः से अर्धरात्रि पर्यन्त गायन-वादन कला के प्रति अभिरुचि बढ़ती हैं
इतने विस्तार से दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में समझना इसलिए आवश्यक है कि अज्ञानता वश गायन-वादन की कला की शक्ति एवं मानव स्वभाव की कोमलता व सुकुमारता को बिना समझे ‘गायन-वादन‘ का अतिरेक कहकर समालोचना करते हैं। हमारे तत्त्वदर्शी सतगुरुओं की यह अद्भुत देन है।
साधों की दैनिक साधना में जैसे प्रभाती व ध्यान ब्रह्ममुहूर्त काल में, मध्याह्न में शब्द-वाणी गायन व प्रवचन तथा सूर्यास्त बेला में दीप-ज्योति आरती एवं वादन के साथ शब्द-वाणी गायन, सभी कुछ प्रत्येक मास की पूर्णिमासी को भी सम्पन्न होता है। साध-संगत की बड़ी संख्या में उपस्थिति से बहुरङ्गता दिखाई देती है।

प्रतिवर्ष अश्विनी माह की शरद पूर्णमाशी रुकनपुर सतनामी धर्म मन्दिर के स्थापना दिवस के रुप में एवं चैत्र की शरद पूर्णिमासी सतगुरु बाबा सबलदास साहिब के प्राकट्य दिवस के रुप में समूची साध-संगत बड़े हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाती है क्योंकि सतगुरु बाबा कायम कुँवर साहिब के अवशेषो की जोड़ी चरण-खड़ाऊ, साधन उपकरण चिम्बुक स्टैंड एवं कन्धे साधनें के दो स्टैंड-एवं पगड़ी के सौम्य दर्शन दोनों शरद पूर्णमासी को कराये जाते हैं। इन पवित्र पूर्णमासियों की साध-संगत में उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा होती है, इसे वे अपनी साधचर्या की बड़ी उपलब्धि मानते है। साध-संगत को सतगुरु बाबा कायम कुँवर साहिब की विद्यमानता की अनुभूति होती है, वे अपना-जीवन धन्य समझते हैं।
सतगुरु दीक्षा प्राप्त करने के आकाँक्षी साध उपवास करते हैं, सतगुरु बाबा साहिब भी दीक्षा स्वयं उपवास में रहकर ही देते हैं। उन्हें दीक्षित साध के व्रतोपदेश दिये जाते हैं। ‘गुरु उगमासी‘ की आज्ञा से कुतगदे साध ने साधों की साधना एवं रहनी-सहनी-करनी को रुपाबाई के पति रावण मालापुस्तिका 36 को जिस प्रकार समझाया, उसे हाथ जोड़े खड़े दीक्षा प्राप्त करने के आकांक्षी साधों को गाकर के समझाया जाता है और रुपाबाई ने जो गुरु उपदेश पढ़ा, उसे भी गा-गा कर समझाया जाता है। इन्हें स्वीकार करने पर सतगुरु बाबा साहिब उन्हें सतगुरु मन्त्र से दीक्षित कर देते हैं और उन्हें अपना आशीर्वाद देते हैं।
समस्त साध-संगत नामकरण संस्कार, अन्न प्राशन संस्कार, चूड़ाकर्म, केशोच्छेदन, मुण्डन संस्कार, कर्णवेध (कान व नाक) संस्कार, विद्यारम्भ, संस्कार, विवाह संस्कार इत्यादि सतगुरु आज्ञा एवं आशीर्वाद प्राप्त करके प्रत्येक पूर्णमासी को धार्मिक रीति के अनुसार सम्पन्न किये जाते हैं।
सतनामी साधों की संस्कारित सन्तान उनके परिवार की अद्वितीय पहचान रहती है। संस्कार सम्पन्न हो रहे समय में साधों की उमड़ती श्रद्धा और अवगत मेहरबान में दत्तचित्त हो सुमिरन करने की उनकी आभा समस्त साधों को मनोहारी लगती है। साथ ही देखकर साध-संगत का धार्मिक विश्वास बढ़ता है।
सभी साध प्रत्येक पूर्णमासी के दिन अपने दूध देने वाली गाय अथवा भैंस के दूध, दही का चढ़ावा लाते हैं, यह सतनामी धर्म की पुरानी परम्परा है। अधिकांश साध कृषक वर्ग से हैं, अतः इस चढ़ावे की प्रचुरता रहती है। दीप-ज्योति के लिए साध-जन देशी घी का भी चढ़ावा लाते हैं।
रुकनपुर मन्दिर की यह अनूठी परम्परा है कि साध पूर्णमासी के दिन सत्गुरु बाबा साहिब एवं व्रती साधो को जिमाने के लिये अपने घर से तैयार करके भोजन प्रसाद लाते हैं और वे स्वयं परोस कर श्रद्धापूर्वक जिमाते हैं, भेंट देकर उन्हें सम्मानित करते हैं।

satguru darbar

एक बार सतगुरु साहिब की आदि देवों की सभा में अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ क्या है, ऐसा प्रश्न उठा। प्रश्न की पृष्ठभूमि में कहा गया कि कोई सत्य की प्रशंसा करता है, कोई तप और शौचाचार की, कोई ज्ञान की, कोई क्षमा को श्रेष्ठ बतलाते है, तो कोई इन्द्रिय-संयम को, कोई सरलता को, तो कोई स्वाध्याय को श्रेष्ठ बतलाते हैं, कोई वैराग्य को उत्तम बताते हैं, तो कोई यज्ञ-कर्म को, कोई समभाव को सर्वोत्तम बतलाते हैं। प्रश्न यही है कि सर्वश्रेष्ठ क्या है? उत्तर में समझाया गया कि यह सम्पूणर्् ा जगत छाया की भाँति उत्पत्ति और विनाशरूप है, परन्तु धर्म से युक्त है। धन, यौवन और भोग जल में प्रतिविम्वित चद्रमा की भाँति चंचल हैं। यह जानकर मनुष्य को सीधे अवगत शरण में जाना चाहिए, परन्तु मनुष्य कल्याण के लिए सर्वश्रेष्ठ दान है। यह भी कहा कि पृथ्वी पर दान से बढ़कर दुष्कर कार्य कोई नहीं है, क्योंकि स्व-उपार्जित धन का त्याग करना दूभर ही है जैसे कुँये से पानी निकालने से शुद्ध और अधिक जल वाला होता है। दिये गये दान से धन घटता नहीं है, अपितु बढ़ता ही है। अतः दान सर्वश्रेष्ठ है। पृथ्वी का धर्म उपार्जन है। पृथ्वी उपार्जित अन्न व अन्य सामग्री का स्वयं भोग न करके सृष्टि के सभी जीवों को दान कर देती है। पृथ्वी ‘सावड़-देवी व कृषि की अधिष्ठात्री‘ है। सतनामी साध-धर्म में माना जाता है कि सावड़ (स्याबड़ी) अर्चना अर्थात अन्नदान से पृथ्वी को उत्पादकता बढ़ती है। इसलिये स्यावड़ी (अन्नदान) साध-धर्म का अनिवार्य अंग बना दिया गया है। इस अन्नदान के लिए स्नान-दान व्रत की विशाखा नक्षत्र युता वैशाखी पूर्णिमा सर्वश्रेष्ठ है, अतः सही नियमन कर दी है कि सभी साध प्रतिवर्ष वैशाख की पूर्णिमा को स्यावड़ी दान देंगे। साध संगत में यह दान अत्यन्त श्रद्धा के साथ मन्दिर में अर्पित किया जाता है।
होली की पूर्णिमा एवं दीपावली पर मन्दिर में पूरी साध संगत साध, साधिनी, युवक व बालक साध अपरान्ह काल में सत्य स्वरुप सतगुरु बाबा कायम कुँवर साहिब के समाधि स्थल पर एकत्रित होकर संध्या पर्यन्त शब्द-वाणी सतकथा आदि की चर्चा गायन करते हैं। सतगुरु बाबा साहिब की उद्भूत करामाती शक्ति से प्रफुल्लता देखते ही बनती है। धर्म अनुप्राणित संगत विनम्रतापूर्वक सतगुरु बाबा साहिब को बार-बार दण्डवत करती नजर आती है। हृदय परिवर्तन के अनूठे उदाहरण भी यहाँ प्रतिवर्ष मिलते हैं। घर-घर से प्रसाद चढ़ावा आता है। सदगुरु बाबा साहिब की समाधि की परिक्रमा परिधि में संकलित कर प्रसाद वितरण किया जाता है।
मन्दिर में साध-समाज की ओर से तीन विशिष्ट समारोहों का आयोजन किया जाता है. पूर्णमासी के सदृश्य प्रातःकाल से अर्धरात्रि तक प्रभाती,आरती, शब्द-वाणी, लीलाओं का गायन प्रवचन, सत्सङ्ग आयोजित रहता है। भोजन-प्रसाद से साध संगत आनन्दित होती है। दूसरे प्रतिवर्ष अश्विनी माह की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन तक
‘सत्सङ्ग-प्रवाह‘ का आयोजन रहता है। प्रतिदिन साधों के अलावा प्रबुद्ध श्रोतागण तदनुरुप निर्गुण भक्ति, निराकार परब्रह्म के प्रतिष्ठालब्ध विद्वान् एवं सन्त प्रवचनकर्ता के रुप में सत्संग-प्रवाह कार्यक्रम में पधारकर इसे आलोकित करते हैं। प्रतिदिन पदासीन सतगुरु बाबा साहिब सतनामी साध-दर्शन पर उद्बोधन देकर उपस्थित संगत को आनन्द -विभोर करते हैं। तृतीय, मातृशक्ति साधिनी सम्मेलन वर्ष में सुविधानुसार तिथि निश्चित कर आयोजित किया जाता है। सोलह-संस्कार सदाचरण, ग्रहस्थ मर्यादा, नित्य वृद्धापसेविन, घर में दैनिक धार्मिक साधना, सन्तान में शिष्टाचार निरुपण, महिलाओं के अधिकार व कर्तव्य इत्यादि विषयों पर प्रवचन आयोजित किये जाते हैं। सम्मेलन की अध्यक्षता पदासीन सतगुरु बाबा साहिब करते हैं। साधिनी समाज अब सतनामी साध-धर्म के प्रति सचेष्ट हैं। अब देखने में आ रहा है कि साध घरों व परिवारों में धर्म सम्पूर्ण निर्गुण सापेक्षिता में प्रतिष्ठित हो रहा है। ‘सत-अवगत‘ की सरिता का प्रवाह वेग से चल रहा है। इस त्रिविध कार्यक्रम से समूची साध संगत में सतनामी साध-धर्म अनुप्राणित हो रहा है।
सतनामी साध दर्शन के सामाजिक पक्ष को कन्याओं के विवाह पर ‘सतगुरु बाबा साहिब का खजाना‘ इस निर्देश के साथ कि इसे सदैव अपने खजानें में बनाये रखना है, अर्पित कर, त्रियोदश संस्कार पर मन्दिर की पगड़ी सबसे पहले बाँध कर, विवाह या अन्य भोज-अनुष्ठानों में सम्मिलित हो, उनका शुभारम्भ करना गाँव-गाँव आयोजित हो रहे
‘धर्म-सम्मेलनों‘ को सफल बनाने में शब्द-वाणी चर्चा गायन व प्रवचन करा प्राकृतिक प्रकोपों से आह्त साधों को सात्वना देने के लिए जाना इत्यादि सभी क्रियाएँ साध चिताने में एक ओर कारगर हैं, तो दूसरी ओर यह भी प्रतिष्ठित होता है कि सतनामी साध ‘सामाजिक-दर्शन‘ के पोषक हैं। सतनामी साध-धर्म की विचारधारा के प्रचार व प्रसार के लिए सामाजिक धरातल से जुड़ना श्रेयस्कर ही है। सतनामी-भंडारा, जिसमें असंख्य साध-साधिनी, सम्मिलित होते हैं, प्रति तीन वर्ष वाद सतनामी साध धर्म मन्दिर रुकनपुर में आयोजित किया जाता है। गुरु मिलाप का माधुर्य, लावण्य, लालित्य, जिसे स्वर्ग से देवता भी पसन्नता पूर्वक देखते हैं और उसमें साध संगत के साथ सहभागिता भी करते हैं। सत्सङ्ग का विराट रुप होता है। चहुँ ओर की साध-संगत के दर्शन होते हैं। मसूह-भोग दोपहर से रात्रि के प्रथम प्रहर तक चलता रहता है। इसे साध-संगत में साधों का तीर्थोत्सव (देहरा) कहा जाता है। इसमें सम्मलित होने वाले साथ अपना जीवन कृतार्थ मानते हैं। सभी साधों को भंडारे का प्रसाद देकर ही विधिवत् विदाई दी जाती है। आदिपुरुष परब्रह्म परमात्मा अवगत मेहरवान के सत्य-स्वरुप सतगुरु शक्ति यहाँ विराजमान है, जो सर्वत्र विद्यमान है। उस निराकार की आराधना एकेश्वर सत्ता के रुप में की जाती है। उससे बड़ी शक्ति अन्य कोई नहीं है। प्रत्येक मानव में ‘वाकी सुरता सबही में रमि रही‘ की धारणा से साधों में अभेद दृष्टि है। यही कल्याणकारी भाव अवगत मेहरबान परम परमेश्वर से अभेद सम्बन्ध बनाने का सहज मार्ग है। मानवदेह प्राप्त कर परमात्मा से अभेद सम्बन्ध कौन बनाना नही चाहेगा। जीवन का सौम्य परम लक्ष्य ‘मुक्ति‘ है और यह अभेद सम्बन्ध ही मुक्ति है। सतनामी साध-धर्म मन्दिर रुकनपुर साधों को साधनारत कर मुक्ति मार्ग प्रशस्त करता है।