Nau nidhi

नौ निधि

वा जोगी कूं सुमरौ भाई, जिन इच्छा सेती सृष्टि उपाई।
वह तो जोगी आप अकेला, उनके आगे सतगुरू चेला ।।
वा चेला को सोंपना सारी, उनकी सीख सुनै हुआ औतारी।
करि दंडौत गुरू के चरणों लागा, मन का धोखा सबही भागा।
मन में दुविधा रही न कोई, सतगुरू सत की संध बताई।
संध परख कर हुआ साधू, पैड़ा लिया भगत का आदू।।
इस पैडे चलै न आवै टोटा, और रहा कलजुग का खोटा।
कुवधी पाथर पूजै देवा, पाती तोर करै वे सेवा।।
सेवा करै और घंट बजावै, वे भरमै और न भरमावे।
उनकी सीख सुनो मत कोई, उन मनखा देही यो ही खोई।।
पांच तत्व का पिंड किया था, मनखा जनम उन ही को दिया था।
भूल गया सत सुमरा नाहीं, जीव हुआ चैरासी माहिं।।

दोहा- ज्यों-ज्यों सतगुरू परघटा, हुआ घनेरा चाव।
मूरख के भावै नही, पेट भरन से काम ।।

पति भरता जो पति कु भावै, दूजे सतगुरू कू पहचाने।
तीजै करें पुरुष की सेवा, सतगुरू दिया भगति का हेला।
यह सेवा तो उनकूं वरनी, जहाँ अवगत की बंदगी करनी।
बंदगी करे नफा बहु तेरा, अहूं कुवधि का मिटया अंधेरा।
जुग-जुग भगति होयगी तब ही, सत भाया सू तरकि न बोले कबहू
तरक बोले वो बडे अन्यायी, उनको सतगुरू की परतीत न आयी।
खोटा वचन काहे कू काढ़़ो, सतगुरू कहे जिभ्या कू साधो।
बिरमा ने अहूं जब कीनों, सतगुरू सुं वे कोली कीन्ही ।
उन कुबिध्या मिल एैसी कीनी, पारवती ने मति हरि लीनी।
मति हरि लीनी हुआ उदासा, छाडी बस्ती जंगल बासा।
सब ही दुनियाँ एैसे भांखे, सतगुरू मिले तो संसो भागे।
सतगुरू कूं कोई बिरला ही जाने, जो जाने सो शब्द पहचाने।

दोऊ कर जोड साध कान्ह जी पढ़े, अब मति भरमो कोई।
सत् का शब्द पहचानिया, भगति जुगा-जुग होय ।।