Gyan Gudari

“ग्यान गूदड़ी”


आदि पुरूष एक किया विचारा, लख चौरासी धागा
पाँच तत्व से गुदड़ी बीना, तीन गुनन से ठाड़ी कीना
तामें जीव बृह्य और माया, समरथ ऐसा ख्याल बनाया
जीवे पाँच पच्चीसो लागा, काम क्रोध ममता मद पागा।
काया गुदड़ी का विस्तारा, देखो सन्‍तो अगम सिंगारा
चांद सूरज दोऊ पैवन लागे, गुरू प्रताप से सोवत जागे
शब्द की सूई सुरति का धागा, ज्ञान को टोवन सिरजन जोरा
अब गुदड़ी की करू हुसियारी, दाग न लगे देखू विचारी
सुमति के साबुन सिरजन धोई, कुमति मैल को डारों खोई
जिन गुदड़ी का किया सम्हारा, तिनही मेटा सिरजन हारा
धीरज धुनि ध्यान करू आसन, सत्य को पीन सहज सिंहासन।
जुगति कमंडल कर गहि लीना, प्रेम फावडी मुर्शिद्‌ चीन्हा
सेली शील विवेक की माला, दया की टोपी तन धर्मशाला
मेहरि मंतगा मत वैशाखी, मृगछाला मन ही को राखी
निहचल धोती पवन जनेऊ, अजपा जपै से जाने भेऊ
रहे निरन्तर सतगुरू दाया, साध संगति करि सब कुछ पाया
लौकर लुकटी हृदय झोरी, क्षमा खराग पहेरि वोहोरी
मुक्ति मेखला सुकृत श्रवंगी, प्रेम प्याला पीवे मोनी
उदास कूबरी कलह निवारी, ममता कुत्ती को ललकारी
जुगति जंजीर बांधि जब लीन्हा, अगम अगोचर सिरकी चीन्हा
बीत राग विज्ञान निदाना, तत्व तिलक दीन्हों निर्वाना
गुरू गम चकमक मन्सा तूला, बृह्य अग्नि पर घट कर पूला
संशय शोक सकल भ्रम जारा, पाँच पच्चीसों परघट मारा
दिल का दर्पण दुविधा खोई, सो वैरागी पक्का होई|
शून्य महल में फेरी देई, अमृत रस की भिक्षा लेई
दुख-सुख मेला जग के भाऊ, त्रिवेनी के घाट नहाऊ
तन मन खोजि भया जो न्यारा, सो लख पावे पद निर्वाना
अष्ट कमल दल चक्कर सुझा, योगि आप-आप में बूझा|
इंगला पिंगला के घर जाई, सुषमनि नीर जहाँ ठहराई |
ओहंग-सोहंग तत्व विचारा, बंक नाल में किया सम्हारा
मन का तीर गगन चढ़ जाई, मान सरोवर पैठे नहाई ।
छूटे कसमल मिले अलेखा, निज नैनन साहिब को देखा
अहंकार अभिमान विडारा, घट का चौका करि उजियारा
चित्त को चंदन तुलसी फूला, संपुट हिरदे लखि ले मूला
अनहद शब्द नाम की पूजा, सत्य पुरुष बिन देव न दूजा
श्रद्धा चंवर प्रीति का धूपा, सत्य नाम साहिब का रूपा
गुदड़ी पहरे आप अकेला, जिन यह प्रगट चलाई भेखा
सत्य कबीर बकसि जब दीन्‍न्हा, सुरनर मुनि सब गुदड़ी लीना
जो गुदड़ी को सुमिरन करें, सो साहिब को प्यारा रहे
जो गुदड़ी की निन्‍दा करे, खट दरसन मुख काला परे

ग्यान गूदड़ी पढ़े प्रभाता, जनम जनम के पातक जाता
ग्यान गूदड़ी पढ़े मध्याना, सो लखि पावे पद निरवाना
संध्या सुमरन जो नर करई, जरा मरन भर सागर तरई
कहे कबीर सुनो धर्मदासा, ग्यान गुदड़ी करो प्रकाशा

                       दोहा

कंठी माला सुमरनी, सतगुरू दीया वकसीश ।

पल-पल गुरू की वन्दगी, गुरू चरनन नवाऊ शीश ॥
              “गरीबी ”

बाबा सबल दास गुरू मेरा मैं गुनह गार हूँ तेरा।
हम तुमसे चित्त चुरायो जब विषै हलाहल खायो॥
नही तुमसे चित्त चुराते क्यों विषै हला हल खाते।
नहीं हुकम आपका माना ऐसा नहीं और अयाना॥
तुम आठ पहर फुरमाया हम कसी नहीं यह काया।
काया से मोहब्बत कीन्हा नहीं नाम तुम्हारा लीना॥
अब दया हमों पर कीजैं यों नाम अमीरस दीजे।
ये नाम महातम ऐसा रजनी का सूरज जैसा।॥
सूरज से दिन उग आया जब साध पदारथ पाया।
यह दई अमोलक काया जहाँ सबही साज बनाया।।
जब शबद आपना दिया हम नाम आपका लिया।
बाबा सबलदास गुरु मेरा मैं गुनाहगार हूँ तेरा॥

बाबा गुरू जी दयालू मेरा मैं गुनाहगार हूँ तेरा॥ ।