दान
साधों का कर्तव्य है की अपनी शक्ति अनुसार श्रम, धन और उपस्थिति से सेवा कर सतगुरु सबलदास जी साहिब की अनुकम्पा, सतगुरु नित्यानंद जी साहिब जी की स्नेह वर्षा व सतगुरु कायम कुंवर जी साहिब की साक्षात कृपा के भागी बने ।
क्या दान करें ?
जिसके पास जो भी साहिब ने बख्शा हुआ है उसका सदुपयोग करना चाहिए। साहिब की सेवा तन, मन और धन से की जा सकती।
प्रथम सेवा मन से, करतार को मन दे दिया तो सब कुछ दे दिया और सब कुछ मिल गया।
गुरु बिच साध साध बिच गुरु है, साध सोइ अन्तर नाय।
जल तरंग जल ही में उपजे, जल ही माहि समाय।।
अपने ह्रदय को मालिक के चरणों में समर्पित कर दें, साहिब हमें वो सब जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते, दे कर अभिभूत कर देतें हैं। इस आवागमन के मझधार से छुड़ा के अपने अमरपुर लोक में स्थान दे देते हैं। साधु, सतगुरु को मिलो तो निर्मल मन साहिब को सोंप दो। मन को गुरु चरणों से जोड़ लो , गुरु सेवा करो और सत के गुन गाओ।
साध मिले साहिब मिले , अंतर रही न रेख।
मनसा वाचा कर्मना, साधु साहिब एक।।
दूजी सेवा है तन की , श्रम दान। साहिब की सेवा में किसी प्रकार की सेवा जो शरीर से की जा सकती है अवश्य बढ़ चढ़ कर हिस्सा लें। साध मंदिर में सेवा का छोटा बड़ा कोई भी मौका किसी भी प्रकार से मिलें तो न छोड़ें।
कबीर ये मन जात है, इसकू लेउ ठहराय।
कै सेवा कर साध की, कै सत के गुन गाय।।
तीसरी सेवा है धन से। साधन सम्पन्नता भी गुरु कृपा की ही देन है। मन का भाव रहना चाहिए की तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।
खाली साधू न भेटिये, सुन लीजे सब कोय।
कहै कबीर कछु भेंट धरो, जो तेरे वित्त होय।।
सतगुरु ने आपके पास जो भी, जितना भी धन उपलब्ध कराया हुआ है, गुरु सेवा के लिए धनांश अवश्य निकालते रहें। गुरु सेवा में थोड़ा भी जायदा होता है और वो दिन रात बढ़ता ही रहता है, चाहे वो मन हो, धन हो या तन (स्वास्थ्य ), गुरुकृपा में समर्पित वृद्धि की ओर ही अग्रसर होता है।
हरि सेवा युग चार है, गुरु सेवा पल एक।
ताके पटतर ना तुले, संतन कियो विवेक।।