कथा धर्म संवाद
कंठ सरस्वती सुमर, प्रेम आनन्द मनाऊ।
मात-पिता गुरू नमन, शीश साधन को नवाऊँ।
आन बुद्धि प्रगट भई,गुरू गनेश मनाय।
पाण्डव सत् धरम की चरचा, सुनत पाप कट जाय।
कहें गुण नारद जी (टेक) (1)
हस्तिनापुर के नृप, धर्म के पुत्र कहावें।
इच्छा भोजन करे, कनक के पात्र जिमावें।
उनको यश मृतलोक में, चले धर्म की चाल।
आशा पूरन करें सबन की, जो आशा कर जाय।
कहें गुण नारद जी (2)
सात दीप नौ खण्ड, नाही सुर उनसो कोई।
प्रथम भयो कोई नाय, नाय कोई आगे होई।
मन्दिर जिनके कनक के, हो रही जय जयकार।
सत्य-सत्य सब ही बोले, झूठ बचन को पाप।
कहें गुण नारद जी (3)
बन्धु जो उनके भीम पौड़िया, वे जो कहावें।
महादेव बल धरें, बुद्धि से सबें हरावें।
दरशन ना चाण्डाल का, वही नेम उन पास।
सहस्स्र सहस्त्र वे नाम, जपें जब मुख में देवें ग्रास।
कहें गुण नारद जी (4)
धर्म सोच जीय मांय कहो, क्या कीजे बानी।
तुम दासन के दास, आप नारद मुनि ज्ञानी।
धरू रूप जो नृप को, भय माने अति जोर।
ऐसो रूप धारि के चालो, उन सत् आँऊ तोल।
कहें गुण धर्म जी (5)
सुन नारद के बचन, धर्म मन में हुलसाये।
देह धरी विकराल, रूप चाण्डाल बनाये।
उलट पेट मुख केश है, बायस को सो रंग।
पग फाटे भय लागत, भारी वस्त्र नाहे अंग।
कहें गुण धर्म जी (6)
जाय भीम से कही, पौड़ि यह किस की कहावे।
हमको देउ बताय, मांग हम भिक्षा लाबें।
खुद्या है दिन चारि की, गई देह को खाय।
सतबादी घर जान के राजा, भोजन जीमू जाय।
कहें गुण धर्म जी (7)
हस्तनापुर के नृप, बन्धु वे बड़े हमारे
जिन घर है यह यज्ञ, दरश नाय करे तुम्हारे।
भोजन यहाँ मँगवाय दूँ, तुमरी करू प्रतिपाल।
तुम देखे से यज्ञ विफल होय, तुम दीखत हो चण्डाल।
कहें गुण भीम जी (8)
एक भीम ने कही, दूसरी कहन न पाई।
चाण्डाल वही नर जान, भीम जो निंदा करे पराई।
मात-पिता घर बृद्ध हैं, उनको जस नांहि लेय।
चाण्डाल वही नर जानिये, जो तीरथ करने जाय।
कहें गुण धर्म जी (9)
एक पुरुष दो नारि, एक सरबर न राखें।
एक सूं करता नेह, एक सूं मुख ना भाखें।
बिन ओगन नारी तजे, कंद मूल फल खाय।
चाण्डाल वही नर जान, भीम जो पर घर रमणे जाय।
कहें गणु धर्म जी (10)
पति की आज्ञा भंग, पुरुष का जीउ सतावें।
बिन न्हाये भोजन करें, पुरुष से पहले खावें।
फिर पति की निंदा करें, और सखियन में जाय।
सत् बचन हम कहें, भीम चाण्डाल वही है नारि।
कहें गुण धर्म जी (11)
सप्त मास गये बीत, पुरुष संग जीया है रिझावै।
भिक्षुक ठाडो द्वारि, ग्रास ले मुख में लाबें।
बाकी व्यथा न बूझिये, उठे न भोजन खाय।
सत् बचन हम कहें, भीम चाण्डाल वही है नारि।
कहें गुण धर्म जी (12)
जो रितु कन्या होय, पुरुष मारन कू धावें।
निबल जान बलहीन, खडग ले बापे धावें।
गऊ धाय जल पे पड़ी, जल पीबन ना देय।
चाण्डाल वही नर जानिये, जो ओन चराई लेय।
कहें गुण धर्म जी (13)
दही सताओ खाय करे, जिव्हा को स्वादा।
उनको लगे कर्म करे, साधन से विवादा।
गुण ऊपर औगन करें, दगा बाज नर जोय।
गुरू देवन झूठो ठहरावें, चाण्डाल वही नर होय।
कहें गुण धर्म जी (14)
वे नर जल में थूक, पाँब बेसान्दुर लावें।
खेत परायो खाय, दौड़ के गऊ हटावें।
पूर्ण अमाबस एकादशी, त्रिया संगम होय।
सत् बचन हम कहें भीम, चाण्डाल वही नर होय।
कहें गुण धर्म जी (15)
वे नर हैं अज्ञान, धरम में ड़ारे रोरा।
रण दे भागे पीठ, देख दुर्जन का जोड़ा।
वे नर वचन जो हारिये, भ्रष्टा पूर्ण खाये।
सत्य वचन हम कहें, भीम चाण्डाल वही नर जान।
कहें गुण धर्म जी (16)
कुल को बिप्र तजे, धान कन्या को खाई।
साको करें न युद्ध, भूमि जो लेय पराई।
प्रातः साझ समझे नहीं, त्रिरिया संगम होय।
सत् वचन हम कहें, भीम चाण्डाल वही नर होय।
कहें गुण धर्म जी (17)
बिन दातुन वे करें, ग्रास ले मुख में लावें।
पग पखारे नांय, शीश से जल ढरकावें।
तास हेत पाबक जड़े, और डारे मिष्ठान।
सरबस ड़ारे खीर में, राजा बो नर हैं चाण्डाल।
कहें गुण धर्म जी (18)
गई बात सो गई, गई को करें ढिढोरा।
अतिल कुतल चाण्डाल, मात सुत करे बिछोहा।
एक कलेस कुल में करे, एक करे जलपान।
बिन मंतर बैंसादुर लाबें, वे ब्राह्मण चाण्डाल।
कहें गुण धर्म जी (19)
पशुवन में खर चाण्डाल, पक्षी में बायस कहिये।
वृक्षों में दुरमुखी, छांय बाकी ना जइये।
साठ पंेड़ तीरथ रहे, जंगल झाड़े जाय।
सत् बचन हम कहें भीम, चाण्डाल वही नर होय।
कहें गुण धर्म जी (20)
स्वामी धन्य तुम्हारो रूप, धन्य ये बचन तुम्हारे।
तुम आये पग धारि, धन्य ये भागि हमारे।
अन्तर खोल विनती करू, तुम बैठो चितलाय।
मनसा त्यारी सब विधि पूँजू, मैं कहूँ नृप से जाय।
कहें गुण भीम जी (21)
जाय नृप से कही, द्वार अभ्यागत आयो।
अतुल कुतुल चाण्डाल, ग्यान मोय अधिक सुनायो।
चलो बाय लेय आईये, जी मत शंका लाय।
वा बिन यज्ञ निष्फल है राजा, जो भूखो उठ जाय।
कहें गुण भीम जी (22)
जबही नृप ने कही बाय यहाँ मत ही लाओ।
हो रहे वेद उच्चार, दर्श मोय मत करवाओ।
बाके दर्श व परस से देख, विप्र हुलसाय।
जो बाकी परछाई पड़ जाय, ऋषि भोजन ना खांय।
कहे गुण नृप जी (23)
राजा तन दीखे चाण्डाल, बोले मुख अमृतवाणी।
मनुष्य देह है नांय, आयो कोई और प्राणी।
घट भीतर बाके देवता, तेरो दियो न भोजन खाय।
वा बिन यज्ञ निष्फल है राजा, जो भूखो उठ जाय।
कहें गुण भीम जी (24)
भीम कही परसंग, जबै एक मतो उपायो।
अंतर पट दे लिये, कौन अभ्यागत आयो।
बाको जीऊ प्रसन्न करो, तन मन आगे देय।
ना जानू बा कौन देव है, छलने आये होय।
कहें गुण भीम जी (25)
धर्म के पुत्र नृप जब,ै वाने वचन उचारे।
अन्तर पट दे लिये, बैठ गयो आसन मारे।
मैं तुम निजकर बूझैँ हूँ, वचन कहो मत और।
क्या कारण आये हो स्वामी, व्यथा सुनादयो मोय।
कहें गुण नृप जी (26)
राजा मित्र हेत हित कार, सोई फल जाय निरंता।
अंतर पट दे लिये, बैठ रहा एक ही अंता।
ज्ञान बिना जोगी नहीं, पुरूष बिना नहीं नारि।
वृक्ष बिना नगरी नहीं, राजा बिन पायक असवार।
कहें गुण धर्म जी (27)
राजा दृग दुनी दृग चाल, आवाज इन्दुर की सी आवें।
कन्द कली जैसे नृप, विष्णु तू भूप कहावें।
तू राजा चैखंड को, मैं तक आयो तोय।
यज्ञ के भीतर ले चल राजा, अति खुद्रया है मोय।
कहें गुण धर्म जी (28)
जाके मात न पिता, पिता बाको राजा होई।
जाके कुटुम्ब न होय, काज बाको करे है जोई।
निर्बल को बल नृप है, दुर्जन सके न मारि।
मैं अभ्यागत अधीन हूँ राजा, तुम देख ले सोच विचार।
कहें गुण धर्म जी (29)
साध साध से मिलें, साध सेवक के आवे।
भाव प्रीत से मिले इच्छा करि भोजन जिमावे।
बाको जीय प्रसन्न करै, तन मन आगे देय।
नेम धर्म वा साध को, राजा आधे सेवक लेय।
कहें गुण धर्म जी (30)
फेरि नृप ने कही साध सेवक के आवें।
घर में अन्न न होय, कहा से बाकू भोजन जिमावें।
वाको सत कैसे रहे, वाके मुख में अन्न न जाय।
कैसे बचे शाप से स्वामी, जो भूखा उठ जाय।
कहें गुण नृप जी (31)
फेरि धर्म ने कही साध, सेवक के आवें।
भावप्रीति कर मिलें, शीश चरनन में लावें।
अन्न समान जल दे, मिले बाको दोष न होय।
ज्यों-ज्यों पग धरें धरणी में, राजा गऊ दिये फल होय।
कहे गुण धर्म जी (32)
धर्म के पुत्र नृप जबै, उन बचन उचारे।
अंतर पट दिये खोलि, शीश चरणन में लावें।
या तुम दई कै देवता, या ब्रह्म विष्णु महेश।
या मेरे पिता धर्म हो, स्वामी याहो इन्द्र नरेश।
कहें गुण नृप जी (33)
भली बुरी जो सुने बाय, हृदय नाय लावें।
देवता सोई नर जान, मार मन अपनो राखें।
भीड़ पड़े का देवता, करे परायो काज।
जो रण से बिछुड़े नहीं, राजा अपने कुल की लाज।
कहें गुण धर्म जी (34)
सत् का सुमरिन करे, जगत में बोले मीठा।
देवता सोई नर जान, काहू से रहे न रूठा।
साध वृद्ध खड़े देख कर कहे नगर में जाय।
देवता सोई नर जानिये, राजा सो सबके मनकू भाय।
कहें गुण धर्म जी (35)
जो नर कारज जीत, गंगा तट यज्ञ करावें।
देवता सोई नर जान, गयाजी पिंड भरावें।
कार्तिक में वन खण्ड करें, तीन महीना नहाय।
देवता सोई नर जानिये, राजा तिर बैकुन्ठ कूँ जाय।
कहें गुण धर्म जी (36)
स्वामी धन्य तुम्हारौ रूप, धन्य ये वचन तुम्हारे।
उठो यज्ञ में चलो, कारज कछु करो हमारे।
ऋषि तपसी आये घने, बेद शंख ध्वनि होय।
इच्छा करि भोजन जैओ, मेरी यज्ञ सफल हो जाय।
कहें गुण नृप जी (37)
राजा देह कष्ट हम करे, रात दिन सौबे नाहीं।
नेम धर्म सब जाय, नृप तेरे भोजन खाही।
भोजन करुँ वा नाथ के, जो कंद मूल फल खाय।
जो नृप तेरे भोजन जैऊ, मेरे नेम धर्म सब जाय।
कहें गुण धर्म जी (38)
फेरि नृप ने कही, नृप में औगुन कैसा।
तप कर भयो एक नृप, कमल भयो जल में जैसा।
नृप बिना जग थिर नहीं, मैं बूझत हूँ तोय।
जग में पाप बढ़ जाय स्वामी, जो जग नृप ना होय।
कहें गुण नृप जी (39)
दसै सेन जो होय, धान चकबी को खाई।
दस चकबी जो होय, धान धोबी को खाई।
दस द्विज गनिका एक है, दस गनिका एक नृप ।
जो नृप तेरे भोजन जैऊ, मेरे नेम धर्म सब भ्रष्ट।
कहें गुण धर्म जी (40)
इतने बचन जब सुने, सभी ऋषि तपसी भागे।
कनक पात्र दिये छोड़, करम हम ही कूँ लागे।
ठाडो राजा रुधन करे हैं, हमकंू लग्यौ शाप।
कौन पुरुष मेरे द्वारे आयो, प्रगटेपूर्ण पाप।
कहें गुण नृप जी (41)
स्वामी खाक उसी को नाम, संत ले भभूत रमावे।
और खाक उसी को नाम, त्रिरिया ले घूरो बड़ावें।
एक जल कहिरा चापटी, एक गंगोदिक होय।
अन्तरगत ना जानू स्वामी, बड़े अज्ञानी होय।
कहें गुण नृप जी (42)
देह पलटि वो मिले धन्य तुम पुत्र हमारे,
धन्य तेरी कुन्ती मात देव यश करे तुम्हारे।
ऋषि तपसी लये बोल के देव शंख ध्वनि होय,
इच्छा करि के भोजन जैऔ याकी यज्ञ सुफल फल होय।
धर्म कथा जो सुने यम वाके निकट आवै,
यम की कट जाय फाँस वास बैकुण्ड़ में पावै।
जिन ये कथा उचारिये उनके सर गये काज,
जग जाहिर है गये भइया गावे हृदय दास।
कहे गुण…