अवगत आसन रहे समाई , औंकार भी होता नाही।

छाया माया होती नाहीं , आप रहे निरन्तर माहि।

साध मंदिर रुकन पुर में आपका स्वागत है

सतवगत

साध-सदाचरण


साधों के हृदय के भाव अपार हैं। यहाँ इन भावों के आधार पर केवल तीन प्रकार के साधों के विषय में प्रमुख उल्लेख किया जा रहा हैः

1 . जिन्हें अणिमादि, धन, मान और बढ़ाई की चाहना होती है, ऐसे साध (साधक) सांसारिक पद, पदार्थों की प्राप्ति के तन्मय होकर जप करते हैं, अवगत मेहरबान उनकी भी कामना पूरी करते हैं।

२ . जिन्हें किसी भी प्रकार के पद, पदार्थों की चाहना नहीं होती है। ऐसे साध निष्काम, शुद्ध विचार वाले और सदभावयुक्त होते हैं। ऐसे ही उनका आचरण देखने को मिलता है।

३ . जिन्हें अवगत मेहरबान के प्रेम के आगे ज्ञान और विवेक की इच्छा नहीं होती। वे सभी ऐसे ही आचरण में निमग्न दृष्टि गोचर होते हैं। सतनामी साध-धर्म में सदाचरण संस्कृति सर्वाधिक प्रमुख है। इस पर सभी साधों को इस ओर सजग रहना होता है। स्वयं, परिवार व साध-संगत को एक सदाचरण में ढ़ालने का आग्रह है। प्रस्तुत हैं- बाह्य साधन व सन्तों की वाणी व पद-इस सदाचरण का मार्ग दर्शाते हुए कुछ मुख्य साध-सदाचरण के बाह्य-साधन जन्म मृत्यु पर्यन्त प्रत्येक संस्कार के समय गुरु-पूजा को सर्वोपरि ही समझना ।

१ . सतनामी साध-धर्म में सतगुरु-पूजा ही अवगत मेहरबान (सर्व सच्चिदानन्द पूर्ण ब्रह्म) की पूजा समझना।

२ . धूम्रपान, भाँग, गाँजा, शराब आदि मादक वस्तुओं के सेवन से अपने को आजीवन बचाये रखना।

३ . जहाँ तक हो सके सम्बन्धी जन भी ऐसे खोजना, जो मादक वस्तुओं को सेवन न करते हों। षोडस् संस्कारों में प्रत्येक साध सन्तान को सतनामी साध रीति से अवश्य संस्कारित कराये। सभी संस्कार समयानुकूल कराये जाय।

४ . शिक्षा साध-परिवार का आभूषण है। सतनामी साध-धर्म की शिक्षा (ज्ञानार्जन) हुजूर दरबार, साध पुरा अथवा सतनामी गुरु-द्वारा, रुकनपुर या सतनामी साध चैकियों से सन्तानों को सुलभ करानी चाहिए।
साध परिवार मीया, मसानी, पीर, पैगम्बर पत्थर आदि की पूजाओं से सदैव दूर रहे, इनका भ्रमजाल न विशुद्ध आध्यात्मिक है और ना ही परमार्थ साधक। जब साध ने सतगुरु के चरणों में स्वयं को सौंप दिया तो किसी दूसरी शक्ति या सत्ता को कोई स्थान नहीं। धार्मिक कार्यों में सेवा भाव-शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, भावात्मकता के साथ सदा सर्वदा तत्पर रहना।

दीक्षित साधको “दीक्षा मन्त्र‘‘ और ‘‘सत-अवगत‘‘ का सुमिरन और जाप तथा “अवगत‘‘ बाबा साहिब का ध्यान प्रतिदिन करना एवं आत्म-चेतना को सतगुरु से निवद्ध करना आवागमन चक्र से विमुक्त होने का सिद्ध साध-मार्ग है।

सर्वदा साध ब्रह्मचर्य की रक्षा करेंगे। ‘ग्रहस्थ- ब्रह्मचर्य का विधान ग्रहस्थी-साधों द्वारा परिपालन करना।

चोरी करना, असत्य बोलना, जुआ खेलना, गन्दे स्वांग रास, अश्लील तमाशे व सिनेमा आदि की पूर्ण बर्जना।

साध-संगत, चर्चा मंडली, गुरुद्वारों से पधारे साधों, सुधीजनों, सत्संगी, योगी, ज्ञानी, विद्वत-जन इत्यादि के प्रति सम्मान-भाव के साथ सेवा करना।

दोनों गुरुद्वारों द्वारा आयोजित भण्डारों, अन्यत्र आयोजित धर्म-सम्मेलन, रसोई इत्यादि में उपस्थित व सहभागिता सुनिश्चत करना।

प्रत्येक साध और उसके परिवारीजनों को प्रतिक्षण सतगुरु के चरणों में लौ लगाना।

साधों को सभी बुराइयों व बुरी आदतों को त्याग कर सच्चा और सादा जीवन निर्वाह करना चाहिए। साधों के लिए तामसी भोजन की बर्जना।

न्याय और सत्यतापूर्वक जीविका उपार्जन करना।

मन में सदा पवित्र विचार रखना, सबका हित चाहना, सभी को उत्तम और हितकारी सलाह देना, वाणी में सदा नम्रता रखना, निन्दा-झगड़े क्रोध से बचना इत्यादि साधों को परम-लाभ का अधिकारी बनाता है।

‘सतनाम‘ के दिग्दर्शक ‘‘सतगुरु‘‘ के चरणों में पूर्ण समर्पित होकर और उनके बताये मार्ग पर अटल रहकर ‘‘जरा मरन भवसागर तरई‘‘। की संप्राप्ति होती है।

प्रत्येक ‘पूर्णमासी‘ साधों का इष्ट और विशिष्ट त्यौहार है। प्रसाद की वाणी बोलते हैं। महाप्रसाद व प्रसाद का वितरण किया जाता है। संध्या समय दीपक जलाने के बाद आरती बोली जाती है। अन्त में, सत्संग-चर्चा, शब्द-वाणी गायन-मध्य रात्रि के बाद तक चलता हैं साधों की सहभागिता नितान्त आवश्यक है।

प्रत्येक साध को कम से कम पांच प्रभाती, पांच आरती, महाप्रसाद व प्रसाद की वाणी, कुछ शब्द-भजन अवश्य याद होने चाहिए।

दीक्षित साध को सत्य पर दृढ़, धीमे, मधुर व विनम्र स्वर में बोलने झूठे भोजन से बचना एवं आत्मानुशासित रहना अनिवार्य आचरण हैं।

दीक्षित साधको “दीक्षा मन्त्र‘‘ और ‘‘सत-अवगत‘‘ का सुमिरन और जाप तथा “अवगत‘‘ बाबा साहिब का ध्यान प्रतिदिन करना एवं आत्म-चेतना को सतगुरु से निवद्ध करना आवागमन चक्र से विमुक्त होने का सिद्ध साध-मार्ग है।

यह आरती सतगुरु बाबा कायम कुँवर बाबा जी साहिब ने बाबा नितानन्द जी साहिब से “करामात सौंपना” प्राप्त करते ही खड़े होकर बोली थी। अतः इसे सभी साध खड़े होकर बोलते हैं। शेष आरती साधों द्वारा रचितहै, इसलिए इन्हें बैठकर बोलते हैं।

(1)
अब धन माल मिलाय दियाँ मेरा, चरण लगाय के चिताय दियौ चेरा।।

अवगत के कछु औसत नाहीं, ज्ञान भण्डार भयौ है बहुतेरा।।

साँचे ही साहिब को सांचो ही सौदा, दिल मालिक पिया दिल ही में हेरा।।

सतगुरु साहिब दर्शन दीनों, नौ मन सूत भयौ है सुरझेरा।।

कायम कुँवर जी की सुनियों वीनती, देखत मिट्यौ साहिब सकल अँधेरा।।

अब धन माल मिलाय दियौ मेरा , चरण लगाय के चिताय दियौ चेरा।।