साखी
साध मोक्ष के पोडिया, उनसे कीजे प्यार।
कूंची उनके हाथ हे, खोले मोक्ष के द्वार ॥ (1)
सब सादौ का दास हूँ, मोमें कछ नहीं ग्यान,
बाबा मोय उबारियो, अपनौ लीजो जाजै।
ये तन विष की वेलरी, गुरू अमृत की खान,
शीश दिये जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान।। (2)
गुरू है बड़े गोविंद ते, मन में देख विचार,
हरि सुमरै सौबार है, गुरू समरै सोई पार। (3)
सादन के ये विनज हैं निसदिन ज्ञान विचार,
ग्राहक आबे लेन कं, ताहे कू दातार। (4)
स्वांस-स्वांस पै नाम लैं, वृथा स्वांस मतखोय,
ना जाने इस स्वांस का, आना, होय न होय॥ (5)
विनय करूँ कर जोड कै, सुन गुरू कृपा निधान।
साधो का यश राखियो, दया गरीबी जान ॥
तुम साहिब हम दास है, त्यारौ ही दियो खाय।
तुमसे दाता छोड के, मांगन किस पर जाय ॥
कर जोड़ू विनती करूं, मेरी सुनो गरीब नवाज।
अपनो ही कर राखियो, मेरी बांह गये की लाज ॥ (6)
तीन लोक नौ खंड में, गुरू से बडौ न कोय,
करता करे न करि सके, गुरू करे सोई होय। (7)
कबीर ये मन जात है ताकू ले ठहराय,
सेवा कर साध की कै सत के गुन गाय। (8)
कबीर चोला मानसी बन्चर धरौ शरीर,
जगत भेद जाने नहीं इस विधि चढ़े कबीर। (9)
चन्दा कहे मन्दोदरी सुन चंदा मेरी बात,
दो बातों का अरथ दे दौस बड़ो है कै रात।
एक विहंगम दिन बड़ो, एक विहंगम रात,
प्रहलाद उबारो छिनक में, सतगुरू अपने हाथ।
पांच पहर तो दिन भयो, तीन पहर भई रात,
लंका मारी राम ने, जा दिन अर्जुन साथ।
महल चढी मन्दोदरी लम्ब छडंग गजराज,
रावण का हेटा दिना समंदर बन गयो सेत। (10)
कबीर ते नर अंध हे गुरू को कहते और,
हरि रूठे गुरू ठौर है, गुरू रूठे नाहिं ठौर। (11)
ये चकवा दो जने इन मत मारो कोय,
ये मारे करतार के रैन विछोया होय।
चकवी बोली माय ते क्यों जन्मी मेरी माय,
सभी पखेरू रुड मिले हमको बैरिन रात॥ (12)
चलती चाखी देख के, रहा कबीरा रोय।
इन पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय ॥ |
घमर-घमर चाकी चलै, चून घनेरौ देय।
मानी से लाग्यौ रहे, वाको बाल न बॉका होय ॥ (13)
हम पशुवा जन जीव है सतगुरू जाति भृंग
मुर्दा कू जिंदा करे पलट धरत है अंग। (14)
सुख देना दुःख मेटना, दूर करो अपराध।
कहे कबीर वे जब मिले, परम सनेही साध ॥ (15)
गुरू चंदन हम नीमड़ी, गुरू सागर हम कीच।
जहाँ-जहाँ गुरू के चरण है, वहाँ हमारौ शीश॥ (16)
गुरू को सिर पै राखिये, चलिये आज्ञा मांहि,
कहे कबीर वा दास कूं, तीन लोक डर नाहि। (17)
गुरू समान दाता नहीं याचक शिष्य समान,
तीन लोक की सम्पदा सो गुरूदीनी दान।
गुरू जहाज हम पावना, गुरू मुख पार परे,
गुरू जहाज जाने बिना, अधवर डूब मरे ॥ (18)
इस माटी के महल में, मगन भयो क्यों मूढ़,
कर साहिब की बंदगी, उस साहिब को दूढ़। (19)
मात पिता गुरू पूजिये तू इनके आधीन,
सच्चे करके मानिये यही देवता तीन। (20)
जो जाकी शरणा रहें, जाकू ताकी लाज।
जल समहीं मच्छी चढ़े, बहे जात गजराज।
अपनौ धर्म न छोड़िये, अनेक पड जॉय जोड़।
ज्यों कंचन रोडी चढ़े, घटे न वाकौ मोल। (21)
कबिरा हरि के रूठते गुरू के सरणे जाय,
कहे कबीर गुरू रूठते, हरि नांहि होत सहाय। (22)
संत दरश को चालिये, तज माया अभिमान।
ज्यों-ज्यों पग आगे धरे, कोटिन यज्ञ समान (23)
साध मिले साहिब मिले अंतर रही ने रेख
मनसा वाचा कर्मना, साधू साहिब ऐक। (24)
साहिब त्यारी साहिबी, सब घट रही समाय।
ज्यों मेंहदी के पात में, लाली लखी न जाय ॥ (25)
साध सताये ते गया जड़ा मूल निरवंश,
तीनों का टीला भया, रावण,करों,कंस॥ (26)
भाव भक्ति भादौ नदी, सभा उठी घहराय,
सुरता तवहीं जानिये, जेठ मास गहराय। (27)
आग लगी इस वृक्ष में, जले फूल और पात,
तुम क्यों जलते पक्षियों, पंख तुम्हारे पास।
फल खाये इस वृक्ष के, गंदे कीने पात,
यही हमारौ धर्म है, हम जलें इसी के साथ॥ (28)
संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ होय।
सुत दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय ॥ (29)
छीर कि सत्नाम है, नीर रूप व्यवहार,
हंस रूप कोई साध है, तन का छाजनहार (30)
साध मिलन को चालिये, तन मन हेत लगाय।
पैंड-पैंड असमेधी जात है, पल-पल गंगा नहाय ॥
साध ही माई-बाप है, साध ही भाई-बंध।
साध मिलावे आपको, काटे यम के फंद ॥
साध हमारे सिर धनी, हम साधन के खेओ।
रोम-रोम में बस रहे, ज्यों बादल में मेह ॥ (31)
कर जोडू विनती करूं, भव सागर अपार,
बंदा ऊपर महिर कर, आवागमन निवार। (32)
कडयी कचरिया विष भरी जन्म न मीठी होय,
सेंद नाम जबही पड़े बेल बिछोया होय, |
बेल झड़ी पत्ती झड़ी भयो बीज को नाश,
दास कबीर जी यों कहें, नहीं उपजन की आस,
सेंद टूट धरती पड़ी, चोदिश फैली बास
दास कबीर जी यों कहें याकी फिर उपजन की आस। (33)
मनै मनोरथ मत करो, मन को करयो न होय।
एक पानी में घी ना सरे रूखो खाय न कोय ॥
तन मटकी और मन दही, सुरति बिलोवन हार।
घृत कबीर जी संचरे, छाछ खाय संसार ॥
नाम को नीर अपार है, मटकी मांहि समाय।
चिड़यी चौंच भर ले गई, समुद्र कहा घट जाय। (34)
सुन हंसा कहे हंसनी सुनो पति मेरी बात,
मूसा से क्या दोस्ती, सब पर दीनी काट। (35)
नितानंद निजनाम से, सदा रहे मस्तान,
अमीरस रस पीवे करे, सत अवगत से ध्यान।
नेत मिला निर्मल हुआ, पायो है सबद अनूप,
पूरब ली पूंजी मिली, संत दास जी सतगुरू के दीदार (36)
मूल ध्यान गुरू रूप है, मूल पूजा गुरू पाँव,
मूल नाम गुरू वचन है, मूल सत्य सतभाव। (37)
मन मोती और दूध का ये ही खरा स्वभाव,
फाटे पीछे ना मिले कोटिन करो उपाय। (38)
मात पिता गुरू पूजिये तू इनके आधीन,
सच्चे करके मानिये यही देवता तीन। (39)
चंदन रोया गह भया मेरा मित्र न कोय, |
जाकू राखू गर्भ में, मेरों नित उठ बैरी होय।
चंदन के तो बन नहीं, सूरन के दल नाहिं,
सबही साध मोती नहीं, घर-घर साधू नाहि। (40)